शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2008

क्या इस्लाम और कुरआन मानवता और दया का संदेश देते हैं? Does Islam,And Quran Gives The Message Of Huminity???

सितम्बर को ab inconvenienti जी ने अपने ब्लॉग पर एक पोस्ट लिखी थी जिसका शीर्षक था...."कुरआन की इन आयतों की व्याख्या करे :..............(१)"

क्या इस्लाम और कुरआन मानवता और दया का संदेश देते हैं?
सर्वधर्म त्याग और धरमांतरण?

उन्होंने कुरआन की आयतों का अंग्रेज़ी अनुवाद दिया है, इन आयतों से ये जनाब यह साबित करना चाहते है की इस्लाम और कुरआन मानवता का संदेश नही देते हैं.....
मैं सबसे पहले उनको कुरआन के बारे मे कुछ बताना चाहता हूँ....
कुरआन किसी इंसान की लिखी हुई किताब नही है जो एक Sequence की तरह चलती है...... क्यूंकि इंसान जब भी लिखता है तो वो एक sequence मे चलता है की बहुत समय पहले की बात है यह हुआ, उसके बाद यह हुआ, फिर यह हुआ, कुरआन मजीद किसी इंसान की किताब नहीं है वो अल्लाह का कलाम है इसलिए उसमे कोई Sequence नही है, आप बाइबल पढिये, रामायण पढिये, महाभारत पढिये, यह सब Sequence मे है के पहले इसका जन्म हुआ, फिर उसकी मौत के बाद इसका जन्म हुआ, आदम अलेह्स्सलम का ज़िक्र "सुरह बकरा" में भी है, "सुरह आरफ" में भी है....लाइन से नही है.

कुरआन मजीद एक बार मे लिखी किताब नही है कुरआन लगभग २३ साल मे नाजिल हुआ है, और कई बार मोहम्मद साहब से जब लोगो ने सवाल किया तो अल्लाह के यहाँ से वही आई और जवाब आया... मौके का लिहाज़ रखते हुए एक एक करके २३ साल मे आयतें नाजिल हुई.....

इसीलिए कुरआन की एक आयत से आप इस्लाम और कुरआन की मानवता या दया का संदेश देता है या नही इसका पता नही चलता है.....

मैं यहाँ उनके द्वारा दी गई आयतों का हिन्दी तर्जुमा पेश कर रहा हूँ :

S. 2 : 27  जो अल्लाह के अहद को पक्का (वादा) करने के बाद भी तोड़ डालते है और (इंसानी सम्बन्ध) जिसके मिलाने का अल्लाह ने हुक्म किया है {उसको} तोड़ डालते है और मुल्क मे फसाद (उप्दर्व) मचाते हैं . (जभी तो इनपर यह जुर्म की सज़ा है की) यही लोग टूटा पाते हैं .


S. 2 : 39   और जो लोग (इस हिदायत की) निशानियाँ जुध्ला देंगे (वह हरगिज़ जन्नत मे न जायेंगे, बल्कि) वह आग के काबिल होंगे, हमेशा (के लिए) उसी मे रहेंगे .

S. 3 : 90-91   वह लोग जो ईमान लाने के बाद काफिर हुए फिर कुफ्र ही मे बढ़ते गए उनकी तौबा हरगीज़ कुबूल न होगी और यही लोग (असली राह से) भूले हुए हैं. बेशक जो लोग काफिर हों और कुफ्र की हालत मे मर जाएँ उनमे से किसी से ज़मीन भर कर भी सोना हरगीज़ कुबूल न होगा अगरचे (थोडी देर के लिए मान भी लें की ) वह अपना जुर्माना इतने से भी अदा करना चाहे । बल्कि उनको दुखदाई अजाब होगा और कोई भी उनका सहायक न होगा . 73
S. 4 : ८९   वह चाहते हैं की तुम भी उनकी तरह काफिर हो कर एक से हो जाओ पास तुम उन मे से किसी एक को भी मित्र न बनाओ जब तक वह घर छोड़ कर अल्लाह की राह मे न निकले और अगर (इस्लाम का दवा करने के बावजूद) उससे मुंह फेरे तो उनको पकडो और जहाँ पो कत्ल कर डालो और उनमे से न तो किसी को मित्र बनाओ और न हिमायती (बिल्कुल ही अलग हो जाओ)


S. 9 : 66     (बस अब) उज्र बहानेबाजी न करो तुम ईमान लाये पीछे काफिर हो चुके३७ (हो) अगर हम तुम मे से किसी एक पार्टी को माफ़ करें भी तो दूसरी पार्टी को ज़रूर ही अजाब देंगे, (जो इस फसाद के सरदार हैं ) क्यूंकि वही मुजरिम हैं।
S . 9 : 74    अल्लाह के नाम की कसमे खाते हैं की हमने यह बात नही कही हालांकि कुफ्र का कलमा (बात) कह चुकें हैं ४२ और इस्लाम लाने के बाद काफिर हो चुनके हैं और ऐसे काम का इरादा कर चुनके हैं जिस पर कामियाब नहीं हुए, और केवल उसी पर रंजीदा है की अल्लाह ने महज़ अपनी मेहरबानी से और रसूल ने (उस के हुकुम से) उनको गनी किया, फिर भी अगर तौबा कर लें तो उनके हक मे बेहतर होत और अगर मुंह फेरे रहेंगे तो अल्लाह उन्हें दुनिया और आखिरत मे दुःख की मार देगा, न कोई उनका (ज़मीन में) वली होगा और न कोई मददगार .


S. 47 : 25     जो लोग हिदायत मालूम हो जाने के बाद भी उल्टे पाँव (गुमराही के कुंवे मे) जाते हैं, शैतान ने उनको धोका दे रखा है और उनको बेहतरी की उम्मीद दिला रखीं है । (यह इस हद तक पहुचें हैं) की जो लोग अल्लाह के उतारे हुए कलाम को नापसंद करते हैं.


७३ . ज़मीन का उदाहरण आसानी से समझ जाने के लिए दिया है, क्यूंकि आदमी इसी पर रहता - बसता है । और सोने की मिसाल इसी लिए दी है की यह इंसान को सबसे अधिक प्यारा होता है । इब्ने कसीर ने फ़रमाया की इस का अर्थ यह है की जो शख्स काफिर हो कर मरा तो फिर उसकी कोई चीज़ कुबूल न होगी अगरचे उसने ज़मीन भर सोना भी ऐसे काम काम मे खर्च किया हो जिसको वह है की जिस सोने को इकठ्ठा करने मे मेहनत और मशक्कत की थी, उसके लिए दिन - रात एक कर दिया था, वह भी इस लायक नही है की आखिरत में उनके लिए कुछ काम आता, क्यूंकि दुनिया मे उन्होंने उसको उचित समय पर खर्च नही किया था, अर्थात उसे अल्लाह के आदेश के अनुसार प्रयोग नही किया, बल्कि या तो उसकी देख रेख ही करता रहा, या मुझ मस्ती ही मे मगन रहा । तो ऐ मुसलमानों ! तुम भी अगर ऐसा ही करोगे तो तुम्हारा हाल भी उन्ही जैसा होगा ( सानाई - हज़रात मौलाना सनाउल्लाह अमृतसरी रहमतुल्लाह )

३७ .  यह आयत मुनाफिको की एक जमात के हक मे नाजिल हुई जो नबी करीम की गीबत (बुराई) करते थे । जब उनसे कहा जाता की ऐसी बातें न करो, ऐसा न हो की उनको ख़बर पहुच जाए यह सुन कर जल्लास बिन सुवेद अथवा इब्ने हारिस वगेरह ने कहा की डरने की कोई बात नही, उम् लोग रसूलुल्लाह के पास जा कर कसमे खा कर कह देंगे की हमने कुछ नही कहा तो आप रसूलुल्लाह मान लेंगे क्यूंकि वो नीरे कान हैं । इस मौके पर एक अंसारी सहाबी आमिर बिन कैस राजिअल्लाहो मौजूद थे, उन्होंने नबी करीम के पास आ कर पुरी जानकारी दे दी, आप रसूलुल्लाह ने उन मुनाफिको को बुलाकर पुछा तो कसमे खा कर इनकार कर गए और यहाँ तक कह गए की ऐसी सूचना देने वाले पर अल्लाह की लानत हो । चूँकि अल्लाह के पाक नाम दरमियान मे ले आए थे इसलिए आप ने हज़रत आमिर अंसारी की बात पर धयान न दिया और मुनाफिको की कसमो पर यकीन कर लिया। हज़रत आमिर को इस बात से बहुत तकलीफ हुई और दुआ की की ऐ अल्लाह ! सच्चे को सच्चा और झूठे को झूठा साबित कर दे, इस पर यह आयत नाजिल हुई (इब्ने कसीर)
मोहम्मद बिन इसाक से रिवायत है की नबी करीम जब ताबुक के स्थान पर पहुचे तो मुनाफिको की एक जमात ने आपसे परे हट कर मुसलमान फौजियौं को डराना शुरू कर दिया और उनसे कहा की उन रूमियौं से लड़ना हँसी - खेल नही है, तुम सबको परजेय का मूंह देखना पड़ेगा और कैद कर लिए जाऊगे । इन बातों को कह कर उन्ही मे से कुछ लोग आपस मे कहने लगे की ऐसा न हो की हमारी बातों पर कोई आयत नाजिल हो जाए । यह लोग बात - चीत कर रहे थे की नबी करीम ने हज़रत अम्मार बिन यासिर को आदेश दिया की जाओ अपने लोगो को ख़बर दो वेह मुनाफिको के आग मे डाले जा रहे हैं, और मुनाफिको से भी कह दो की वह कैसी - कैसी साजिशें मुसलमानों के साथ कर रहे हैं? हज़रत अम्मार ने जब मुनाफिको से कहा तो वह भागे हुए आपकी सेवा मे हाज़िर हुए और इधर - उधर की बातें बनाने लगे ।

एक शख्स फहश बिन हिम्यार नामो मुनाफिको मे से बाद मे सच्चा मुसलमान हो गया और यम्मामा की लडाई मे शहीद हुआ अपनी मुनाफिकान रविश को छोड़ देने के बाद उसने बराबर अलह से दुआ की मुझ को ऐसी शहादत नसीब कर की न कोई गुस्ल दे सके और न की कफ़न - दफ़न कर सके । यम्मामा की लडाई मे ऐसा ही हुआ । तमाम शहीदों के शव तो मिल गए मगर इन साहब का शव का पता न चल सका । अल्लाह पाक ने उनकी दुआ कुबूल कर ली । दुबारा इस्लाम लाने के बाद उनका नाम बदल कर "अब्दुर रहमान" रखा गया था (इब्ने कसीर) शहादत वह दर्जा है के नेक बन्दे दुआए करते चले आयें हैं । हज़रत उमर राजिअल्लाहो यह दुआ किया करते थे , " ऐ अल्लाह ! दीन की राह पर मुझे शहादत नसीब कर और मुझे अपने रसूल के शहर मे मौत दे" । अल्लाह हर मुसलमान को यह नेक जज्बा अता फरमाए ---- आमीन

४२ . यह आयत अब्दुल्लाह बिन उबय्यी के बारे मे नाजिल हुई, जब उसने कहा की मोहम्मद की मिसाल उस कुत्ते की तरह है की किसी ने पाल कर खूब मोटा किया हो फिर वह अपने मालिक ही को काट खाए । बिकुल यही उदाहरण मोहम्मद और उनके सहाबा का जय की हमारे शहर मे आकर हम ही पर हुकूमत गाँठ रहे हैं, अब हम मदीना जा रहे हैं और उन ज़लीलो को निकाल कर ही दम लेंगे । इस खबीस की बकवास के बारे मे जब मोहम्मद को सूचन दी गई तो उसे बुलवाया लें वो मरदूद अपनी कही हुई बात से साफ़ मुकर गया और कसमे खा कर साफ़ बच निकला।
बुखारी शरीफ मे हैं की नबी करीम के मदीना शरीफ हिजरत करने से पहले लोगो ने इसी मुनाफिक को ताज पहना कर अपना पेशवा बनाना चाहा था, मगर आपके आने से इसकी कामना और इच्छा मिटटी मे मिल गई, इसी लिए वो दिल मे कीना रखने लगा था .



हदीस की डिटेल में बाद मे दूँगा अभी यही काफ़ी है अब ज़रा मुझे बताएं की कौन सी आयत मे काफिरों को न बख्शने को कहा गया है..........इन सब आयतों मे सिर्फ़ S. 4 : 89 को छोड़ कर कर बाकी सब आयतों मे क़यामत के दिन होने वाले आजाब का ज़िक्र है और वो उनके लिए जो इस्लाम कुबूल करने के बाद दुबारा काफिर हो गए...... इन सब आयतों मे से किसी मे भी यह नही है की तुम्हे जो काफिर मिले उसे मार दो ।
S . 4 : 89 मे उन मुनाफिको को मारने का हुक्म दिया है जो लोग ईमान लाने के बाद, इस्लाम कुबूल करने के बाद दोबार काफिर हो गए और मक्का - मदीना मे सबसे यह कहते फिर रहे थे की इस्लाम बहुत कमज़ोर और ख़राब मज़हब है हमने भी कुबूल किया लेकिन बदल गए इसीलिए तुम भी बदल जाओ और हमारे साथ आ जाओ ।
कुरआन की आयतें मौके की नजाकत के हिसाब से नाजिल हुईं है तो सिर्फ़ एक आयत से आप मतलब नही निकाल सकते हो इसलिए मैं आपको इन आयतों के साथ की जो आयतें है उनके तर्जुमे की ऑडियो भी दे रहा हूँ जिन्हें आप डाउनलोड करके सुन सकते हैं।


S. 2 : 19 - 30

S. 2 : 31 - 50

S. 3 : 81 - 92

S. 4 : 79 - 90

S.9 : 57 - 69


कुरआन अल्लाह का कलाम है उसमे ऐसी कोई बात नही है अगर आपको अब भी यकीन नही है तो और आयतें अपने ब्लॉग पर डाले मैं उनका जवाब दूँगा । लेकिन हैरत की बात है की कुरआन को पढने के बावजूद आपने ऐसी बात कैसे कही क्यूंकि जो एक बार कुरआन को धयान से पढ़ लेता वो कुबूल कर लेता है की कुरआन अल्लाह का कलाम है......... लगता है आप दुनिया के उन लोगो मे शामिल हो जिनके दिलो - दिमान पर टनों मिटटी पड़ी हुई है और जो कुरआन को समझने के लिहाज़ से नही बल्कि उसमे कमी निकलने के लिए पढ़ते हैं ।
एक बार अपना नजरिया बदलो, और इस्लाम और मुसलमानों के लिए जो तुम्हारे दिल मे गन्दगी है उसे साफ़ करो और फिर कुरआन को दिल से समझ कर पढो इंशाल्लाह मुझे यकीन है की आप उसे अल्लाह का कलाम कुबूल कर लोगे ।

9 टिप्‍पणियां:

  1. आपने कहा है:-
    S 4:89 में उन काफिरों को मारने का हुक्म दिया जो लोग ईमान लाने के बाद, इस्लाम कुबूल करने के बाद दुबारा काफिर होगये और मक्का मदीना में सबसे कहते फिर रहे थे कि इस्लाम बहुत लमजोर मज़हब है हमने भी कुबूल किया लेकिन बदल गये इसीलिये तुम भी बदल जाओ और हमारे साथ आ जाओ

    कुरान की इस आयत के हिसाब से कन्धमाल की हिंसा तो एकदम जायज हुई
    गलत एकदम गलत होता है, चाहे उसे कन्धमाली करें या अल्लाह के आतंकवादी

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  2. सभी लोग कुरानी आयतों का अपने अपने हिसाब से मतलब निकालते हैं। वर्ना क्या ज़रूरत है शीय, सुन्नी और तबलीग़ी आदी जमातों का? सब एकदूसरे की पुस्तकों और अक़िदों को नहीं मानते हालांकि कुरान को तो मानते ही हैं मगर समझ नहीं पाते या फिर सम्झना ज़रूरी नहीं सम्झते।

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  3. aapane suruwaat hii tark kaa galaa gho.nT kar kiyaa hai| jab aap yah kah dete hai.n ki kuraan maanav dwaaraa nahii.n rachit hai to is par bahas karane kii koI gu.njaais hii kahaa.N bachatii hai?

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  4. आपने शुरुवात ही तर्क का गला घोंट कर किया है। जब आप यह कह देते हैं कि कुरान मानव द्वारा रचित नहीं है तो इस पर बहस करने की कोई गुंजाइस ही कहाँ बचती है?

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  5. दरअसल दहशतगर्दी को इस्लाम से जोड़ना एक सोची-समझी सांजिश है जिसकी शुरुआत पश्चिमी देशों ने की थी। आतंकवाद की निंदा करनी चाहिए, भले ही वो कोई इंसान करे, संगठन करे या फिर कोई सरकार करे, लेकिन इसे मजहब से जोड़े जाने को किसी भी सूरत में जायज नहीं ठहराया जा सकता। गौरतलब है कि 'इस्लाम' शब्द अरबी भाषा के 'सलाम' शब्द से निकला है, जिसका मतलब है सलामती, अमन। ऐसी हालत में आखिर किस बिनाह पर कहा जा सकता है कि इस्लाम दहशतगर्दों को पनाह देता है।

    क़ुरान में कहा गया है कि ''वह (अल्लाह) ऐसा माबूद है कि उसके अलावा कोई दूसरा माबूद नहीं है, वह शहंशाह है, पाक है, सलामती और अमन देने वाला निगरां है।'' (क़ुरान: 59:23)

    क़ाबिले-गौर यह भी है कि मुसलमानों को हुक्म दिया गया है कि जब किसी पैगम्बर का नाम सुनो तो उसके साथ 'अलैहिस्सलाम' कहो। इसका मतलब है उन (पैगम्बर) पर सलामती और अमन हो। जब मुसलमान आपस में मिलते हैं तो एक-दूसरे को सलाम करते हैं, जिसका मतलब भी अमन और सलामती ही है।

    जन्नत में भी लोगों को सलामती के ही शब्दों से पुकारा जाएगा। इस बारे में कहा गया है कि ''और उनका परस्पर सलाम यह होगा कि अमन और सलामती हो तुम पर।'' (क़ुरान:10:10)

    जन्नत की तारीफ में कहा गया है कि ''वहां हर तरफ से अमनो-सलामती ही अमनो-सलामती की आवाज आएगी।'' (क़ुरान 56:26)

    पैगम्बर हज़रत मुहम्मद सल0 को संबोधित करते हुए कहा गया है कि ''ऐ मुहम्मद! हमने तुम्हें दुनिया के लिए दयालुता ही बनाकर भेजा है।'' (क़ुरान 21:07)

    क़ुरान में जगह-जगह लोगों को सब्र करने और माफ़ करने की ताकीद की गई है। क़ुरान में 85 जगह अल्लाह को माफ़ करने वाला कहा गया है। अल्लाह ने अपने नबी से कहा है कि ''ऐ पैगम्बर! ईमान वालों से कह दो कि वे उनको भी माफ कर दिया करें जो अल्लाह के कर्म परिणामों की उम्मीद नहीं रखते, ताकि लोगों को उनकी करतूतों का बदला मिले। जो कोई अच्छा काम करता है तो अपने लिए ही करेगा और जो कोई बुरा काम करता है तो उसका बवाल उसी पर होगा। फिर तुम अपने रब की तरफ लौटाए जाओगे।'' (क़ुरान 45 : 14-15)

    ''बुराई को भलाई से दूर करो'' (क़ुरान 28 :54)

    ''और जो शख्स सब्र से काम ले और दूसरे के कसूर को माफ कर दे तो बेशक यह बड़ी हिम्मत का काम है।'' (क़ुरान 42 :43)

    ''बेशक अल्लाह तुम्हें इंसाफ़ और नेक काम करने का हुक्म देता है।'' (क़ुरान 16 :90)

    ''तुम में जो श्रेष्ठ और सामर्थ्यवान हैं, वे नातेदारों, मुहताजों और अल्लाह के रास्ते में घरबार छोड़ने वालों को कुछ न देने की कसम न खा बैठें। उन्हें चाहिए कि माफ़ कर दें और उनसे दरगुज़र करें। क्या तुम नहीं चाहते कि अल्लाह बड़ा माफ़ करने वाला और रहम करने वाले है।'' (क़ुरान 24 :22)

    ''भलाई और बुराई बराबर नहीं है। अगर कोई बुराई करे तो उसका जवाब भलाई से दो। फिर तुम देखोगे कि तुम्हारा दुश्मन ही तुम्हारा गहरा दोस्त बन गया है। और यह गुण उन्हीं को मिलता है जो सब्र करने वाले हैं और जो बेहद खुशनसीबहैं। अगर इस बाबत शैतान के उकसाने से तुम्हारे अंदर कोई उकसाहट पैदा हो जाए तो अल्लाह की पनाह तलाश करो। बेशक वही सब कुछ सुनने वाला और जानने वाला है।'' (क़ुरान 41 : 34-36)

    पैगम्बर हज़रत मुहम्मद सल0 ने अपनी बेटी के क़ातिल को माफ़ करते हुए बस यही कहा था कि मेरी नज़रों के सामने से हट जाओ...यही है मेरा इस्लाम...

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  6. कुरान ज्यादातर श्रृंखलाबद्ध नहीं है, तो हर आयत अपनी तरह से यूनीक है, कांटेक्स्ट से बंधी नहीं है, अपने आप में संपूर्ण है.

    बस इसी बात को ध्यान में रखते हुए मेरे ब्लॉग पर उद्दृत आयातों को पढिये

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  7. नकुल जी कंधमाल में जो हिंसा हुई वो नाजाएइज़ है क्यूंकि वहां पर लोग हिंदू से ईसाई हुए है, अपना धर्म उन्होंने सिर्फ़ एक बार बदला है, उस वक्त काफिर मुसलमान हुए और फिर काफिर हो गए, उसके बाद मुसलमानों को भड़का रहे थे, इसीलिए यह आयत नाजिल हुई थी............ आप लोगो को ईसाई लोगो मारने के बदले यह गौर करना चाहिए की हमारे धर्म में क्या कमी रह गई की जो लोग पुश्तो से हिंदू थे उन्होंने अपना धर्म क्योँ बदला?
    क्या वजह इसके पीछे? इस तरह दुसरे के धर्मस्थल जलने, उन्हें मारने, और उनकी औरतों का बलात्कार करने से कुछ नही होगा, अगर उन लोगो ने आपके धर्म में या वहां हिन्दुओं को मिलने वाली सुविधाओ में कोई कमी ढूंढी तो यह धर्म परिवर्तन का सिलसला नही रुकेगा.......और कृपया करके उन लफ्जों का इस्तेमाल नही करे जो आप अपने लिए नही सुन सके


    अनुनाद सिंह जी यह बहस मैंने शुरू नही की, ना ही मुझे शौक है इस चीज़ का लेकिन जब एक झूठा इल्जाम लगा तो बर्दाश्त नही हुआ, इसीलिए यह सब शुरू हुआ, और वैसे भी इसी बहाने बहुत से लोगो के दिलो दिमागों पर जमी मिटटी हट जाए शायद !

    और अपनी मर्ज़ी का मतलब निकलने वालो का कोई इलाज नही जैसे की मैंने लिखा था की कुरान काफ़ी वक्त में नाजिल हुआ, लेकिन इसका मतलब यह नही है की एक वक्त में एक ही आयत नाजिल हुई या फिर एक हालत पर एक ही नाजिल हुई और बस ख़त्म ...............

    ऐसा नही है जिस तरह आप कह रहे है की हर आयत यूनीक है, कांसेप्ट से बंधी हुई नही है, हर आयत का अलग मतलब है, यह बिल्कुल सही उदाहरण है अपने हिसाब से मतलब निकालने का...........

    किसी पोस्ट में आप यह साबित नही कर सके की इस्लाम बेगुनाहों को मारने का हुक्म देता हो, किसी भी आयत में नही कहा गया है जाओ और बेगुनाहों को कत्ल कर दो!

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काशिफ आरिफ

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