काफ़ी दिनों से भारत और चीन के बीच सीमा विवाद चल रहा है और ये मुद्दा सबसे गरम है हर तरह सिर्फ़ इसी की चर्चा है। चीन काफ़ी वक्त से अरुणाचल प्रदेश के काफ़ी हिस्से पर अपना हक जता रहा है जबकि पुरा अरुणाचल प्रदेश भारत का हिस्सा है। ये तो हुई बाहरी हमले की बात अब हम लोग बात करते है अंधरुनी हमले की। बाहर सीमा पर चीन जो कर रहा है वो तो सबको दिख रहा है लेकिन हमारे देश और हमारे घर में ये चीनी कम्पनियां जो कर रही है उसकी तरफ़ किसी का ध्यान नही है।
बडे पर्दे पर रोज़ शाम को आराम करते हुये अपनी फ़िल्में देखना इनका तरीका है। ये लोग हमारे देश में अकेले नही है कई हज़ार चाईनीज़ कारीगर और वर्केर देश में जगह-जगह चाइनीज़ कम्पनियों द्वारा हासिल किये गये इंफ़्रास्ट्र्क्चर प्रोजेक्ट्स में काम कर रहे हैं लेकिन ये नियुक्तियां बगैर विवाद के नही है यहां इन नियुक्तियों से विवाद जुडे हुये है। ये कम और आधे-अधुरे (Unskilled & Semi-skilled) कारीगरों का चीन से आयात भारतीय कारीगरों की नौकरी खा रहा है जो वैसे ही बेरोज़गार घुम रहे हैं।
चीनी कम्पनियों को भारत में बहुत से कांट्रेक्ट मिले है तो जितनी चीनी कम्पनियां हैं सबने अपने देश से कारीगरों को भारत बुला लिया है अपने देश से बेरोज़गारी को कम करने के लियें। एक अनुमान के अनुसार फ़िलहाल हमारे देश में कुल मिलाकर 25,000 चीनी कारीगर है इन कारीगरों में सारे अच्छे कारीगर नही है बल्कि कुछ तो आधे-अधुरे (Semi-Skilled) और कुछ को तो काम बिल्कुल भी नही आता है यानी (Unskilled) है। एक साल से भी कम समय में तीन बार भारतीय और चीनी कारीगर आमने-सामने आ चुके है यहां अन्तर सिर्फ़ भाषा का नही है बल्कि चीनी और भारतीय कारीगरों को मिलने वाली मज़दुरी में भी है----भारतीय कारीगर को रोज़ 87 रुपये मिलते है जबकि एक गैर-कानुनी तौर पर हमारे देश में मौजुद और काम कर रहे चीनी कारीगर को 1700 रुपये रोज़ मिलते हैं। भारतीय को कोई वर्दी नही होती है पर चीनी कारीगरों की वर्दी होती है चटकदार रंग की---ये चीनी कारीगर "एयर कंडीशन बैरक में रहते है जहां उन्हे टी.वी. और चीनी खाना" मिलता है जबकि भारतीयों को ऐसा कुछ भी नही मिलता है---भारतीय को काम के प्रति गैर-ज़िम्मेदार कहा जाता है जबकि चीनी इसके विपरीत काम के प्रति "ज़िम्मेदार और डेडलाईन औरियेन्ट्ड" कहे जाते है।
EIL की चन्द्नकियारी, झारखंड में बन रही स्टील फ़ैक्टरी को बनाने का कांट्रेक्ट दो चीनी कम्पनियों को मिला है एक है China First Mettallurgical Construction Company और दुसरी है 23rd Metallurgical Construction Company. इस कांट्रेक्ट की कीमत लगभग 11,000 करोड रुपये है, ये प्लांन्ट 2,500 एकड के इलाके में फ़ैलेगा और इसके जुन 2010 तक पुरा होने की उम्मीद है। काम इस साल मार्च में शुरु हुआ है और काफ़ी तुफ़ानी रफ़्तार से चल रहा है ताकि इस डेडलाइन तक काम पुरा हो सके इस काम करने 500 चीनी इंजीनियर और वर्कर करीब 3,000 भारतीय वर्करों के साथ साइट पर काम कर रहे है फ़िलहाल इनकी गिनती 1,200 रह गयी है क्यौंकि अभी कुछ महीनों पहले भारतीय अफ़सरों ने अवैध विदेशी वर्करों के खिलाफ़ कारवाई की थी।
पकडे गये सारे अवैध वर्कर "बिज़नेस वीज़ा" पर भारत आये थे----"बिज़नेस वीजा" की शर्तों के अनुसार इस वीज़ा पर आया शख्स जो अपने हुनर में माहिर है वो यहां नौकरी नही कर सकता है। अब इस तरह दो परेशानियां खडी होती है पहली यह की चीनी लोग लगातार कम माहिर वर्करों (Semi-skilled) को माहिर (Skilled) बताकर हिन्दुस्तान भेज रहा है और दुसरी की बीजिंग में मौजुद भारतीय वीज़ा विभाग अपना काम ठीक से नही कर रहा है।
इस प्लांट के अन्दर सब शांन्त नही है अभी इसी साल मई के महीने में हिंसा हो गयी थी जब एक हिन्दुस्तानी मज़दुर को छुट्टी करने पर सज़ा दी गयी थी, पुलिस को बुलाना पडा था लेकिन तब तक दोनों तरफ़ के मज़दुर घायल हो चुके थे। EIL के एक मज़दुर के अनुसार "चीनी मज़दुरों में २५% हाथ के कारीगर है हमारे जैसे, उनके पास ऐसा कोई खास हुनर नही है जो हम उनसे सिख सकें"।
इन चीनी वर्करों के रेसीडेन्शल एरिया चारदीवारी से घिरा हुआ बना है बिल्कुल एक आर्मी बेस की तरह, इसके अन्दर एयर कंडीशन बैरक बने हुये है, बास्केटबाल कोर्ट, चायनीज़ कैंन्टिन और केबिल टी.वी. तथा वो सब सुविधायें जिनके एक भारतीय मज़दुर ख्वाब देखता है"। "इन चीनी कारीगरों को रम और पानी की बोतलें मिलती है लेकिन भारतीय मज़दुरों के पास एक टुयुबवैल भी नही है" ये भेदभाव आसपास के इलाके में बहुत परेशानी खडी कर रहा है...यहां टेन्शन बढती जा रही है।
बिल्कुल साफ़ है की चीनी जो सस्ते प्रोड्क्ट के लिये जाने जाते है इतने सस्ते में नही मिल रहे हैं पर भारतीय कम्पनियों को इससे कोई शिकायत नही है। आर.एस. सिहं ने सारी बातों को कुबुल करते हुये कहा की "चीनी काफ़ी फ़ायदेमंन्द है ये इस प्लांन्ट को १५ महीने में तैयार कर देंगे जबकि इस प्लांट को एक भारतीय कम्पनी बनाने में आठ साल का वक्त लगाती"। आर.एस.सिंह की बात से डी.एस.राजन, डायरेक्टर, सेन्टर फ़ार चायना स्ट्डीज़, चेन्नई, सहमती ज़ाहिर करते है "चीनी एक जुट होकर काफ़ी अच्छा प्रर्द्शन करते है प्रोजेक्ट को वक्त पर पुरा करने के लिये जबकि भारतीय टीम के बजाय एकल रुप से काम करते है Indians tend to be more individualistic"
चाइनीज़ कम्पनियों को शायद ही अपने देश के कम पढे-लिखें और कम माहिर कारीगरों की ज़रुरत होगी लेकिन वहां की सरकार असली वजह है इस सबके पिछे चीनी सरकार द्वारा चलाई जा रही "विदेश जाओ Go Abroad" पालिसी। चीन में बढती बेरोज़गारी और देश के बाहर फ़ैलती चीनी कम्पनियों के काम को देखते हुये हुये ये पालिसी बनाई गयी है। भारतीय कम्पनियां भी इन्हे ही तरजीह दे रही है हमारे देश के मज़दुरी कानुन (???) की वजह से।
चीनी कारीगर अब प्राईवेट और सरकारी प्रोजेक्ट्स पर काम कर रहे है-----एक तरफ़ मुकेश और अनिल अम्बानी की कम्पनियों के पावर प्रोजेक्ट्स इसके अलावा सरकारी पावर प्रोजेक्ट बंगाल में। दिल्ली इंटरनेश्नल एयरपोर्ट लिमिटेड (DIAL) के अन्डर में 56 कारीगर शिशे की दीवार (Glass Curtains Wall) पर काम कर रहे हैं। DIAL के प्रवक्ता ने इस बात का कोई जवाब नही दिया की उन्होने और 140 चीनी कारीगरों के लिये अर्ज़ी क्यौं लगाई थी (उस अर्ज़ी को सरकार ने ठुकरा दिया) चीनी कारीगरों का एक दस्ता हिमाचल प्रदेश में एक सडक पर काम रहा था जिनकी गिनती को 80 से एकदम 10 कर दिया गया इस बात से एक बहुत बडा सवाल उठता है "क्या सारे चीनी "इंजीनियर और टैक्निशिन" है जिनकी कमी भारतीयों के द्वारा पुरी नही की जा सकती है???
स्त्रोत :- आउटलुक
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काफ़ी गम्भीर मामला है ये...इस विषय पर कुछ करना होगा ये चीनी अपने देश में फ़ैली बेरोज़गारी हमारे देश में फ़ैला देंगे...
जवाब देंहटाएंअगर ऐसा हो गया तो बहुत बुरा होगा
बिल्कुल सही कहा आपने... ये तो हमारे देश के गरीब मज़दुरों के पेट पर लात मारना हुआ... जब ये काम हमारे यहां के मज़दुर कर सकते है तो चीन से मज़दुर बुलाने का क्या मतलब है....
जवाब देंहटाएंएक ८७ रुप्ये और दुसरे को १७०० रुप्ये ये तो बहुत बडा फ़र्क हुआ... इसके खिलाफ़ कुछ करना होगा काशिफ़ जी... सोचिये क्या कर सकते है.. मैन भी सोचती हूं....
चीनी इंजीनियरों, मैनेजरों, सुपरवाईजरों, मिस्त्रियों, टेक्निशियनों को हिंदी और अंग्रेजी नहीं आती, भारतीय मजदूरों को अंग्रेजी और मंदारिन नहीं आती. मंदारिन-हिंदी दुभाषिये भारत में हैं नहीं. संवाद की समस्या होगी तो काम की क्वालिटी पर बुरा प्रभाव होगा.
जवाब देंहटाएंऔर फिर काम भी 'इंडियन स्टेनडर्ड टाइम' से कई गुणा कम समय में ख़त्म करना है.
मजदूर वीजा समाप्त होते ही लौट जाएंगे.
अंग्रेजी भाषी देशों की कम्पनियाँ अपने गोरे मैनेजरों-इंजीनियरों की भाषा अंग्रेजी समझ सकने वाले तकनीशियन लगा लेती हैं, मजदूरों-कामगारों के साथ संवाद की समस्या यूँ आसानी से सुलझ जाती है. भारत में लगभग हर पढ़ा लिखा इन्सान अंग्रेजी समझता है. पर चीनी कंपनियों के साथ बात दूसरी है. आपको ऐसे कितने भारतीयों के बारे में मालूम है जो आसानी से चीनी लिख बोल लेते हैं?
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आप बताएं की चाइनीज़ कंपनी संवाद की समस्या से कैसे निपटे?
बहुत सही मुद्दा उठाया है आपने... इस पर विचार करना होगा...
जवाब देंहटाएंऐसे तो हमारे देश में भुखमरी फ़ैल जायेगी...
हमारे देश में आकर ये लोग हमारे देश के मज़दुरों की नौकरी कैसे खा सकते है...
जवाब देंहटाएंमैं ही बताए देता हूँ, संवाद की समस्या से निबटने का सबसे अच्छा तरीका होगा की ऐसे देशों की कम्पनियों को ठेके न दिए जाएँ जो की गैर अंग्रेजी भाषी हों.
जवाब देंहटाएंकई ऑस्ट्रेलियन, ब्रिटिश, कैनेडियन और अमरीकी कम्पनियाँ भी भारत में निर्माण प्रोजेक्ट चला रही हैं. उनके सिर्फ उच्च अधिकारी और इंजिनियर गोरे हैं, बाकी का काम भारतीय अधिकारी संभाल लेते हैं.