शनिवार, 11 जुलाई 2009

दहश्तगर्दों के खिलाफ़ फ़तवा आखिर कब?

काफ़ी वक्त से ये सवाल हिन्दुस्तान की अवाम के दिमाग मे घुम रहा है की आखिर कब दहश्तगर्दों के खिलाफ़ फ़तवा जारी होगा। ११ सितम्बर के हादसे के बाद से पुरी दुनिया मे मुसलमानों के लिये हालात दिन ब दिन खराब होते जा रहे हैं।

इस्लाम क्या किसी धर्म में यह नही बताया गया है की दूसरे धर्म के लोगो को जीने ना दो, उन्हें और उन्हें धर्म स्थलों को तबाह कर दो.... इस्लाम तो अपने मानने वालो को कुरआन में आदेश देता है की "दुसरो के माबुदो (उपास्यो) को बुरा ना कहो (सूरा-ए-अलंफाल सुरह. ८ : आयत-१०८) |' पाक कुरआन में खुदा का हुक्म है, "जिसने एक बेकुसूर का कत्ल किया, गोया उसने सारी इंसानियत का कत्ल कर दिया" (सूरा-ए-अल्मायेदाह सुरह. ५ : आयत - 108) |' आख़िर यह कौन से जेहादी हैं और इनका कौन सा मज़हब है, जो बेगुनाह लोगो की जान लेने को इन्हे आतुर करता है | दिल्ली बम काण्ड को ले, तो यह बात समझ नही आती की क्या कोई सच्चा मुस्लिम, और वे भी रमजान के पाक महीने में ऐसा जघन्य पाप करेगा | साफ़ है, आतंक्वादियौं का कोई धर्म और ईमान नही होता |






आज मुस्लिम समाज में कुछ लोग ऐसे हैं, जो इस्लाम की मानवतावादी शिक्षाओ से कोसो दूर हैं | ऐसे लोगो की गैर इस्लामी हरकतों से इस्लाम का नाम बदनाम होता है | इस्लाम का नाम बदनाम करने वाले आतंकवादी चाहे कश्मीर में हों, अफगानिस्तान में हों, पाकिस्तान में हों, अमेरिका में हों, या इंडोनेशिया में, ये सभी इंसानियत और मज़हब पर बदनुमा दाग हैं | इस्लाम अपने मानने वालो को ये आदेश भी देता है की बुढो, बच्चो और औरतों पर हथियार न उठाओ, किसी भी धर्मस्थल में बैठे हुए राहिबो व सन्यासियों पर हमला न करो | किसी ऐसे आदमी पर हमला न करो और ऐसे आदमी से न लड़ो, जो मुकाबला करने की हालत में न हो | मगर आतंकियों ने कभी इन नसीहतो को नही पढ़ा | सिर्फ़ नाम मुसलमान का और बाप - दादा के मुसलमान होने कोई मुसलमान नही हो जाता हैं।

इस्लाम एक आधुनिक धर्म है और धर्म से अधिक जीवन व्यतीत करने की कला है | इसीलिए एक आम मुस्लिम इन आतंकी हमलो की कभी हिमायत नही करता, मगर यह कुबूलने में कोई गुरेज़ नही की लगातार हो रहे आतंकी विस्फोटो के पीछे के तथाकथीत अक्स ने एक समूचे समुदाय के ऐतबार को चोट पहुचाई है |

इस्लाम को इन जेहादियों ने एक हिंसक रूप में पेश किया है, जबकि इसका नाता तो सूफी फलसफे से जुड़ा है और यह तलवार से नही, बल्कि सुफियान सोच और मोहब्बत से दुनिया भर में फैला है | कुरआन शरीफ़ में तीसवें पारे (अध्याय) की सुरा-ए-काफिरून सुरह:१०९ में लिखा है, 'लकुम दिनोकुम वली यदिन' अर्थार्त तुम्हे तुम्हारा धर्म मुबारक, हमें हमारा धर्म मुबारक | कुरआन में कहीं नही लिखा की दकाज़नी करो, खूरेंजी करो या दूसरो की जान लो | सच्चाई तो यह है की रहमदिली को इस्लाम का जौहर माना गया है | कुछ लोग सवाल उठा सकते हैं की क्या कुरआन के यह संदेश ओसामा बिन लादेन, मुल्ला उमर, मसूद अजहर आदि ने नही पढ़े होंगे? इसके जवाब में यह प्रश्न पुछा जा सकता है की क्या इस्लाम के असली ठेकेदार और मुल्ला यही लोग हैं? एक कहावत है, "नीम हकीम खतरा ऐ जान और नीम मुल्ला खतरा ऐ ईमान" |

आज सबसे ज़्यादा गलतफ़हमी जो इस्लाम के मुताल्लिक है वो है लफ़्ज़ "जिहाद" । इस लफ़्ज़ को लेकर सबसे ज़्यादा गलफ़हमियां है और ये गलफ़हमियां गैर-मुस्लिमों के बीच ही नही, मुसलमानों के बीच मे भी है। गैर-मुस्लिम और कुछ मुस्लमान ये समझते है की कोई भी जंग कोई मुस्लमान लडं रहा है चाहे वो ज़्यादती फ़ायदे के लिये हो, चाहे अपने नाम के लिये हो, चाहे माल के लिये हो, चाहे ताकत के लिये हो। अगर कोई भी जंग कोई भी मुस्लमान लडं रहा है तो उसे कहते है "जिहाद"।

"जिहाद" लफ़्ज़ आता है अरबी लफ़्ज़ "जहादा" से उर्दु मे इसका मतलब हुआ "जद्दोजहद"। और इस्लाम के हिसाब से अगर कोई इन्सान अपने नफ़्ज़ को काबु करने की कोशिश कर रहा है सही रास्ते पर आने के लिये तो उसे कहते है "जिहाद"। अगर कोई इन्सान जद्दोजहद कर रहा है समाज को सुधारने के लिये तो उसे कहते है "जिहाद"। अगर कोई सिपाही जंग के मैदान मे अपने आप को बचाने के जद्दोजह्द कर रहा है तो उसे कहते है "जिहाद"। अगर कोई इन्सान जुल्म के खिलाफ़ आवाज़ उठा रहा है तो उसे कहते है "जिहाद"।

"जिहाद" का नाम लेकर बेगुनाह लोगो की हत्या कर रहे लोग शायद ये नही जानते की "जिहाद" का अर्थ हज़रत मोहम्मद साहब ने हर इन्सान के लिये अलग-अलग बताया है किसी सहाबी से कहा की "अपने नफ्स (इन्द्रियों) से लडो, यही तुम्हारा "जिहाद" है, किसी सहाबी से कहा कि "अपने वालिदेन की खिदमत करो, यही तुम्हारे लिये जिहाद है"। किसी सहाबी से कहा कि "अपने बीवी-बच्चों की देखभाल करों, यही तुम्हारे लिये जिहाद है"।

हिन्दुस्तान के हालात कुछ ऐसे है। मैं हफ़्ते मे चार दिन अपने शहर से बाहर रहता हूं तो पता चलता है की और शहरों के हाल क्या है। मुझे कई बार मेरा नाम जानने के बाद होटल में कमरा देने से मना कर दिया गया है, कहते है की सर रुम नही है...ज़्यादा कुछ कहो तो कहते है की हमारी मर्ज़ी जिसको चाहें कमरा दें। उसकी भी बात सही है उसकी मर्ज़ी जिसको चाहे कमरा दे, उसकी सम्पत्ति है चाहे जो करें आप ज़ब्रदस्ती नही कर सकते।

दिल्ली के स्टेशन पर मेरी और मेरे सामान की तलाशी कम से कम पन्द्र्ह-बीस मिनट तक होती है और पुलिसवाले कपडे और हुलिया देखने के बाद तालाशी करते है। मेरा दिल्ली जाना अकसर जुमे के दिन होता है तो आमतौर पर मैं पठानी सुट या अपना सबसे पसन्दीदा लखनवी कुर्ता पजामा पहना होता हुं क्यौंकी वो सफ़र मे बहुत आरामदायक होता है तो मेरी तालाशी काफ़ी देर तक होती है लेकिन जिस दिन मैने जीन्स पहनी होती है उस दिन मुझे कोई नही रोकता है।

हर तरह के सवाल किये जाते है क्यौं आये हो? कहां से आये हों? किसको जानते हो? कब जाओगे? ये क्या है? वो क्या है? इधर से क्यौं आये? जाने क्या - क्या। अब तो बर्दाश्त के बाहर हो रहा है कितना सब्र करें? कब तक दुसरों के कर्मो की सज़ा हम भुगतेंगे? वो ये सब क्यौं करते है इसका मकसद आज तक समझ नही आया। वो इसे "जिहाद" कहते है लेकिन इस्लाम में "जिहाद" ये तो नही है....

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपने दुरुस्त फ़रमाया...

    एक बात और


    आपसे और उन सभी ब्लोगर्स से जो यह अक़ीदा रखते हैं कि अल्लाह एक है और मुहम्मद (स.व.) उनसके बन्दे और आखिरी पैगम्बर हैं, यह अपील है कि एक दुसरे के ब्लॉग को अपने शेड्यूल के हिसाब से रोजाना देखे और उन पर टिपण्णी करें और साथ ही एक दुसरे को प्रोत्साहित करने के साथ साथ सहयोग भी करें|

    ऐसे ही कुछ ब्लॉग हैं..
    रांचीहल्ला - By Nadeem Akhtar
    स्वच्छ संदेश: हिन्दोस्तान की आवाज़ - by Saleem Khan
    ईश्वर की पहचान - by Safat Alam
    इस्‍लाम इन हिन्‍दी - by Mohammad Umar Kairanvi
    इस्लामिक वेबदुनियाँ - by Mohammad Asif
    अंतिम अवतार - by Mohammad Umar Kairanvi
    द होली कुरआन- by Kashif Arif

    (if you have some mmore blog blonging this criteria, pliz write here...thanks)
    (pliz remove the word-verification)


    -सलीम खान

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  2. इस्लाम और कुरआन by काशिफ़ आरिफ़

    http://qur-aninhindi.blogspot.com

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  3. ये बात तो आजतक मेरी समझ में नही आयी

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काशिफ आरिफ

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