मेरी ज़िन्दगी का मकसद "दो वक्त की रोटी"...... ये अलफ़ाज़ एक सात-आठ साल के बच्चे ने मुझसे कहे। कल मैं अपने भतीजे को स्कुल से ला रहा था तो सिग्नल एक सात-आठ साल का बच्चा मुझे भीख मागंने लगा ये सब पहले आगरा में नही होता था लेकिन पिछ्ले छ्ह-सात महीनों से यहां पर भी शुरु हो गया है। आमतौर पर मैं बच्चों, हट्टे-कट्टे और सही जिस्म वाले भिखारियों को भीख नही देता हूं...क्यौकि ये लोग मजबुर नही होते है ये भीख का कारोबार करते है और मैं उस लडके को काफ़ी वक्त से इस चौराहे पर देख रहा हूं वो मुझे रोज़ मिलता है लेकिन कल पहली बार उसने मुझसे भीख मांगी थी।
मैने उसको मना कर दिया वो जाने लगा तो मेरे भतीजे उसे बुलाया "तुम्हारा नाम क्या है?" उसने जवाब दिया "मोनू"... "कहां रहते हो?" उसने कहा "यहीं सडक पर"...."तुम्हारे मम्मी-पापा कहां है?" मेरे भतीजे ने उससे पुछा तो उसकी समझ में नही आया तो उसने दोबारा पुछा "तुम्हारे मां-बाप कहां है?" मेरे भतीजे और उसकी उम्र लगभग एक जैसी होगी....मैं अपने भतीजे का चेहरा देख रहा था कि ये छोटा बच्चा उससे कैसा सवाल कर रहा है.....उस लडके ने जवाब दिया :- "मां का पता नही बापू तो वहां शराब की दुकान पर बैठा है"
मेरे भतीजा बोला "चाचू, इसको पैसे दे दो".....मैने अपने भतीजे की बात नही टाली और उसको पांच रुपये देने लगा तो मेरा भतीजा बोला "पांच नही दस रूपये दो". मैने दे दिये। फ़िर रास्ते भर मेरा भतीजा मोनू के बारे में ही बात करता रहा....एक सात-आठ साल के बच्चे का इतना सोचना मुझे परेशान कर गया। शाम को मेरा उसी चौराहे से गुज़रना हुआ तो मोनू वहां मौजुद था मैने उसे बुलाया उसने आते ही कहा "सलाम साब" मैने उससे पुछा "खाना खाया" उसने ना में गर्दन हिला। पहले मैने उसे खाना खिलाया..... खाना खाने दौरान उससे बात की तो उसने कहा "मुझे बस दो वक्त खाना मिल जाये ज़िन्दगी से और कुछ नही चाहिये"।
मैं वहां से घर तो आ गया लेकिन रात भर मोनू की बात मेरे दिमाग में घुम रही थी| मैं अभी इस लायक नही हूं की एक बच्चे की ज़िम्मेदारी अपने कंधो पर ले सकूं....
हमारे हिन्दुस्तान में ज़्यादातर शहरों मे गोद में बच्चा लिये बहुत सी औरतें भीख मांगती आपको मिल जायेंगी.... इनको देखकर कभी गुस्सा आता है....कभी दया आती है.....इन लोगों में से कुछ पेशेवर होते, कुछ मजबुर होते है, कुछ को तो आदत हो जाती है।
हमारी कांग्रेस सरकार ने अभी कुछ दिनों पहले १०० दिन पुरे किये है, ये सरकार दुसरी बार बनी है लेकिन इन पांच साल और १०० दिन में कोई फ़ैसला, निर्देश या कानुन नही बना जबकि काग्रेंस के राजकुमार (बकौल सुरेश जी) बहुत से गरीबों और मज़दुरों के घर में रात गुज़ार चुके है लेकिन फ़िर भी इन लोगो के लिये कुछ भी नही किया।
ना सरकार और ना हम लोग इनके लिये कुछ कर रहे है हमारी भी ज़िम्मेदारी बनती है लेकिन हम में से कोई अपनी ज़िम्मेदारी ना समझ रहा है और ना निभा रहा है....हम Mcdonalds में भरी प्लेट छोडकर ऊठ जाते है और ये लोग एक रोटी को तरसते है.....
मोनू जैसे बच्चे हमारे देश का भविष्य है लेकिन हमारे देश का भविष्य तब बनेगा जब इन जैसे बच्चों का भविष्य बनेगा.....और इसके लिये हम लोगो को अपनी ज़िम्मेदारी समझनी होगी.....
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लानत है ऐसे समाज की जहाँ असमानता की खाई किस क़दर हो चुकी है. एक ओर अमीर और अमीर होता जा रहा है, गरीब और गरीब होता जा रहा है. दरअसल असमानता हमारे भारत के समाज का अभिन्न अंग हो गया है, यह अभी से नहीं सदियों से अपनी जड़ें जमा चूका है. चाहे वो सामाजिक संरचना में हो या आर्थिक संरचना में हों.
जवाब देंहटाएंऔर लानत है ऐसे ब्लोगरों का जो अपने को एक तरफ तो राष्ट्रवादी राष्ट्रवादी कह कर चिल्लाते हैं, और असमानता की यह भयावह खाए नहीं दिखती, और इस ओर अगर किसी (?) ने लिखा तो उसमें उन्हें चिढ लगती है; हाँ, अगर इसी को उसने (?) लिखा होता तो अब तक वह ब्लॉग का देवता बन गया होता. उन्हें तो बस वो असामनता दिखती है जहाँ सिर्फ समानता ही समानता है.
बहुत ही बढ़िया लेख.
बहुत सही कहा है आपने.....इस वजह को कोई नही देख रहा है
जवाब देंहटाएंकाफ़ी अच्छा मुद्दा उठाया है तुमने... हमेशा की तरह
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